वनवासी कल्याण केंद्र ने कहा पेसा और वनाधिकार के बिना जनजातीय विकास अधूरा

वनवासी कल्याण केंद्र ने कहा पेसा और वनाधिकार के बिना जनजातीय विकास अधूरा

रांची

आज डॉ श्यामा प्रसाद मुख़र्जी विश्वविद्यालय के सभागार में "जनजातियों के संवैधानिक एवं कानूनी अधिकार, पेसा एवं वनाधिकार कानून" विषय पर एक दिवसीय कार्यशाला वनवासी कल्याण केंद्र, डॉ श्यामा प्रसाद मुख़र्जी विश्वविद्यालय , आई क्यू ए सी एवं इंदिरा गाँधी राष्ट्रीय कला केंद्र के संयुक्त तत्वावधान में आयोजित किया गया। इस कार्यशाला में पूरे झारखण्ड से पाहन, पुजार, मुंडा, मानकी, माझी हड़ाम और पंचायत प्रतिनिधि आए। कार्यशाला में विख्यात जनजातीय बुद्धिजीवियों और राज्य के जनजातीय क्षेत्रों में काम करने वाले गणमान्य समाजसेवियों ने भाग लिया। 

75 वर्षों से हसिए पर आदिवासी समाज

डॉ श्यामा प्रसाद मुखर्जी विश्वविद्यालयके कुलपति डॉ तपन कुमार शांडिल्य ने कहा कि आजादी के पहले एवं आजादी के बाद जनजाति समाज को जो कानूनी अधिकार प्राप्त होना चाहिए था वह आज आजादी के अमृत काल में 75 वर्ष के बाद भी नहीं मिला है जनजाति समाज प्रारंभ से हासिए पर रहा है. मध्य प्रदेश शासन के पदाधिकारी, लेखक, एवम जनजाति चिंतक श्री लक्ष्मण राज सिंह मरकाम ने अपने संबोधन में कहा की जनजाति समाज प्रारंभ से शक्तिशाली रहा है मध्य भारत के गोंडवाना राज्य का 14 साल का गौरवशाली इतिहास है जनजाति समाज को कुछ सीखने की आवश्यकता नहीं है वह स्वयं में परिपूर्ण है सरकार द्वारा औद्योगिकरण और विकास के नाम पर जो उनसे छीना गया है उनसे जो लिया गया है वहीं वापस करने की आवश्यकता है. वन अधिकार कानून एवं पेसा कानून भी यही कहता है. अनुसूचित जनजाति आयोग के पूर्व अध्यक्ष श्री हर्ष चौहान ने पेसा और वनाधिकार को आदिवासी अस्तित्व एवं अस्मिता का पोषक बताया। उन्होंने बताया कि समाज के विकास और परंपरा के संरक्षण में आदिवासी समाज की बड़ी भूमिका है। और समाज की अपेक्षा और आवश्यकता का संविधान के आलोक पूरा किया जाना सभी के हित में हैं. विकास भारती के सचिव पद्म श्री अशोक भगत ने कहा कि भारत सदैव परम्परा आधारित विकास का समर्थक रहा है। उन्होंने अविलम्ब पेसा और वनाधिकार को युद्ध स्तर पर क्रियान्वयन करने की आवश्यकता बतायी। 

5 प्रतिशत भी क्रियान्वयन नहीं हुआ

वक्ताओं ने इस बात पर बल दिया की अनुसूचित जनजाति समाज के लिए संविधान निर्माताओं और नीति नियंताओं द्वारा ऐसे प्रावधान स्थापित किये हैं जो समाज के अस्तित्व और अस्मिता की निरंतरता के लिए आवश्यक हैं। बदलते सामाजिक, आर्थिक एवं सांस्कृतिक परिवेश में इन प्रावधानों की समझ और अनुपालन और भी महत्वपूर्ण हो जाते हैं। 1996 में बना यह कानून, आज भी देश के अधिकतर राज्यों में पूरी तरह से लागू नहीं है। कुछ राज्यों में नियम बनने के बावजूद अनुसूचित क्षेत्र में रूढी परंपरा के अनुसार गांवों को चिन्हित नहीं किया है। परंपरागत ग्राम सभा को लघु वनोपज, जल निकाय, लघु खनिज ऐसे संसाधनों पर परंपरागत अधिकार देने हेतु राज्य सरकारों के नियमों में जो उचित बदलाव की आवश्यकता है, उन्हे करना चाहिए. इसी तरह “वन अधिकार कानून” 2006 में पारित हुआ। इसकी प्रस्तावना में लिखा है कि ब्रिटिश काल और आजादी के बाद भी जनजाति समाज अपने वनों के अधिकारों से वंचित रहा। इस ऐतिहासिक अन्याय को यह कानून दूर कर रहा है। किंतु इस कानून के अंतर्गत दिए हुए "सामुदायिक वन संसाधनों के अधिकार" का क्रियान्वयन देश में पांच प्रतिशत भी नहीं हो पाया है।